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व्यंग्य

नेताजी का पर्यावरण दिवस आयोजन

मुकेश असीमित


एयर कंडीशंड हॉल में चक्के वाली गद्देदार कुर्सी पर अपनी मोटी तोंद को धंसाते हुए वन विभाग के आला अधिकारी मनसुख लाल बैठे हुए थे। वक्त काटने के लिए सूरज की झुलसती गर्मी को धता बताते हुए कृत्रिम ठंडी हवा का आनंद ले रहे थे कि तभी फोन की घंटी बज उठी। ऑफिस के स्विट्जरलैंड जैसे माहौल में अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने में आये इस व्यवधान से खीजे हुए, उन्होंने अपनी अर्ध मुंदी आँखों से पास खड़े अत्यंत निजी सहायक रामदीन को इशारा किया। अपने अधिकारी होने के सभी प्रोटोकॉल का अच्छी तरह निर्वाह करते हुए रामदीन को अपनी अफसरी का बीड़ा उठाने के सारे काम, जैसे कि जूते के फीते बांधना, फोन उठाना, और कह देना कि 'साहब अभी व्यस्त हैं', सिखा दिए हैं। लेकिन जैसे ही रामदीन के मुँह से 'सर' 'सर' की ध्वनि उच्चारित होने लगी, उनके अर्ध मूर्छित लटके हुए कान खड़े हो गए। पता चला फोन शहर के विधायक जी का है। अधिकारी की अर्ध निद्रा में शिथिल हो रही बॉडी एकदम हरकत में आ गई। अपने शेषनाग के आसन जैसी चक्के वाली कुर्सी से अपने आपको छुड़ाते हुए फोन उठाया, घिघियाती आवाज में कहा, "नमस्कार विधायक साहब, कहो कैसे याद किया?"

बातों से पता चला कि पर्यावरण दिवस आने वाला है और इस बार विधायक महोदय को इस दिवस में खास रुचि है। इस साल का पर्यावरण दिवस इसलिए भी खास है कि 2 महीने बाद ही चुनाव हैं, और नेताजी इस बार पूरे दमखम के साथ पर्यावरण के प्रति चिंता व्यक्त करना चाहते हैं। अपने पर्यावरण प्रेम की करुणा भरे भाषण से लोगों को रुलाना चाहते हैं।

अधिकारी को नेताजी ने एक और मंशा जाहिर की कि इस बार पर्यावरण दिवस उनके आलीशान महल के आलीशान फार्म हाउस प्रांगण में ही मनाया जाएगा। सभी संबंधित विभागों को इस तैयारी के लिए दिशा-निर्देश दे दिए गए हैं।

नेताजी पिछले पाँच साल में जब से विधायक की कुर्सी हथियाई है, तब से प्रकृति प्रेम दिखाने के जो भी तरीके हो सकते हैं, वो सभी अपनाए हैं। बंजर पड़ी चरवाहे की भूमियों को अपने अधिग्रहण करके उनमें एक आलीशान फार्म हाउस बनवाया है। उसमें पाताल तोड़ सबमर्सिबल लगाकर, उसके मीठे पानी से विदेशी घास की प्यास बुझाकर, हरा-भरा बना दिया है। सभी संस्थानों को वृक्षारोपण का महत्व बताकर, उनके द्वारा बिना सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किए हुए पेड़ लगवा लिए हैं। नगर परिषद के टैंकरों को, जो पेड़-पौधों को छोड़कर शहर की गलियों में प्यासे शहरवासियों को पानी पूर्ति करते थे, उन्हें पेड़ों को पानी पिलाने में लगा दिया था। टैंकर वालों को भी मोहल्ले में लोगों की पानी भरने के लिए मचाई जाने वाली चिल्ल-पों और सर-फुटबॉल से निजात मिली। नरेगा के मजदूरों का मस्टरोल अब निजी फार्महाउस पर मजदूरों को रोजगार का हक दे रहा था। सभी फार्महाउस को चमकाने में लगे थे। साल भर में फार्महाउस की चमक की खबर दूर-दूर तक फैल गई थी। पाताल तोड़ सबमर्सिबल का पानी भी मीठा था। नेताजी पार्टी की मीटिंग हो, संस्थाओं के प्रतिनिधियों की शिष्टाचार मीटिंग हो या जन सुनवाई, सभी मौकों पर अपने सबमर्सिबल का पानी चखवाते। एक बार किसी ने सुझाव दिया कि आप आर ओ वॉटर प्लांट लगवा लो। नेताजी ने वो भी कर दिया था। मिनरल प्लांट की बोतल में अपनी पार्टी के लोगो को ही ब्रांड लोगो बना दिया था। इस पार्टी भक्ति से उनके ऊपर के नेतृत्व ने उन्हें सम्मानित भी किया है। नेताजी का पशु प्रेम भी देखते ही बनता है, एक तरफ आलीशान काउ शेड बना था, उसे के लिए एक बड़ी जगह पर वृक्षारोपण के पदचिह्नों को मिटाकर टीन शेड तैयार किया है। वहाँ, पीएम साहब के आह्वान पर कुछ पुंगनूर ब्रीड की गाय भी पाल रखी है। इसके अलावा जितनी भी पशु पक्षियों की प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर है, उन सभी को संरक्षण बतौर अपने फार्महाउस में जगह दे दी है। नेताजी का अब तो पर्यावरण के साथ-साथ पशु पक्षी प्रेम भी रोम-रोम से फूट रहा है। नेताजी रोज सुबह उनके साथ खींची गई सेल्फी सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं, और ढेरों लाइक और कमेंट बटोर रहे हैं। नेताजी को पशु-पक्षी प्रेम इतना है कि शाम को अंधेरे में हो रही आलीशान पार्टियों में इन्हीं में से कुछ पशु-पक्षियों को थाली में परोसकर पार्टी के कार्यकर्ताओं को धन्य किया जा रहा था।

अब जब नेताजी का इस बार पर्यावरण दिवस मनाने का ऐलान हुआ है, और वो भी अपने फार्महाउस पर, तो सभी संबंधित विभाग के आला अधिकारी अलर्ट मोड पर आ गए। ताबड़तोड़ की गई मीटिंगों में समोसे की प्लेट और चाय की चुस्कियों के साथ कुछ संभावित अड़चनों पर भी विचार व्यक्त किए गए। आखिरकार नेताजी के नाश्ते और नेताजी के ब्रांडेड पानी के बदले में कुछ तो उपकार चुकाना था। नेताजी ने अड़चनों को ध्यान से सुना और संबंधित विभाग को इन्हें दूर करने का आदेश ध्वनिमत से प्रेरित किया। पहली समस्या फार्महाउस के सामने लगे पेड़ थे, जिन्होंने सड़क को भी अपने में समेट रखा था। अब वहाँ पार्किंग की समस्या आ गई। पार्किंग पेड़ों के नीचे भी हो सकती थी, लेकिन समस्या यह कि पेड़ों पर बसेरा कर रहे पक्षियों की बीट जो कभी सर पर गिरे तो कोई बात नहीं, लेकिन पार्क की कारों पर गिरेगी तो शायद पर्यावरण प्रेमियों को अच्छा नहीं लगेगा। इन पेड़ों के नीचे काफी दिनों से कुछ नट नुमा घुमंतु लोगों ने डेरा जमा लिया था। नेताजी की कुर्सी में इनका विशेष हाथ था। नेताजी ने एक बार इन सभी का वोटर आईडी बनवाकर उनको परमानेंट वोट बैंक बना दिया था। अपने आलीशान फार्महाउस की चमकती पतलून में पैबंद की तरह चिपके इन लोगों को देखकर नेताजी मन मसोस कर रह जाते थे। लेकिन उन्हें हटाने का सोच भी नहीं सकते थे। हालाँकि फार्महाउस की शान में तो धब्बा लग ही रहा था। कई बार प्रदेश के आए आकाओं ने भी इशारा किया 'ये आपने, क्या कर रखा है'। लेकिन अब मौका आ गया था, नेताजी का इशारा PWD विभाग समझ गया था। रातों रात सब पेड़ हटा दिए गए। वहाँ पार्किंग के लिए बड़े-बड़े बोर्ड लगा दिए। अंदर जहाँ शामियाना लगना था वहाँ की विदेशी घास को जड़ से उखाड़ फेंका है। नेताजी का यह योगदान स्वातंत्रोत्तर भारत में भी 'विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार' आंदोलन में गिना जाएगा। अब समस्या आई पेड़ लगाने की। वैसे तो नेताजी हर कार्यक्रम में कबूतर उड़ाने में विश्वास करते हैं। लेकिन यहाँ पर्यावरण दिवस था और पेड़ वो उड़ा नहीं सकते थे। पिछले पाँच सालों में शहर की संस्थाओं को हड़का कर, धमका कर इतने पेड़ लगवा दिए हैं कि फार्महाउस में इंच भर जमीन नहीं रही। पेड़ों के झुरमुट गुत्थमगुत्था हो रहे थे। नए पेड़ लगाने के लिए पुराने पेड़ों को हटाना आवश्यक था। लेकिन नेताजी बड़े संवेदनशील हैं, पेड़ काटते समय बड़े दुखी दिख रहे थे। उन्होंने कटे हुए पेड़ों के पैसे भी नहीं लिए, जो पेड़ काट रहे थे उन्हीं मजदूरों को घर में पलीता जलाने के लिए पहुँचा दिए हैं।

नेताजी के आर ओ प्लांट की मिनरल वॉटर की बोतलें भी धड़ल्ले से पैक होने लग गई हैं। कुल मिलाकर सारी तैयारियाँ हो गई हैं। बस पर्यावरण दिवस का इंतज़ार हो रहा है। नेताजी ने एक बढ़िया सा हृदयस्पर्शी भाषण भी तैयार करवा लिया है, इसमें कुछ ऐसे शब्द घुसा दिए गए थे जो नेताजी ने पहली बार सुने थे, जैसे कि ग्लोबल वार्मिंग, जिनेवा डिक्लेरेशन, कार्बन उत्सर्जन, ये शब्द नेताजी ने हटवा दिए हैं। ग्रीन ट्रिब्यूनल वालों को भी विशेष आमंत्रण मिला है। पत्रकार भी नेताजी के पर्यावरण प्रेम की बढ़-चढ़कर ख़बरें दे रहे हैं, साथ ही नेताजी के आर ओ प्लांट की मिनरल बोतल का ऐड भी दिया हुआ है। पत्रकारिता भी क्या करे, घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?

खैर, नेताजी के पर्यावरण दिवस की तैयारियाँ अपने पूरे शबाब पर हैं, मैं भी थोड़ा सा व्यंग्य से हटकर कुछ गंभीर हो जाता हूँ। आपकी मुस्कान में भी विडंबना की उस धूल को महसूस करना चाहता हूँ जो सियासत के चक्रव्यूह में उड़-उड़ कर हमारी आँखों में झोंकी जा रही है। हमारे नेता विकास के पथ पर अपने कदमों की छाप छोड़ने के चक्कर में जितनी बेरहमी से प्रकृति का सीना चीर रहे हैं, उसे देख यह कहना कि पर्यावरण दिवस का आयोजन कर हम अपनी धरती माँ को उसका हक दे रहे हैं, मुझे तो उस मूर्खता से ज्यादा नहीं लग रही है जो गले में पड़े फंदे को पुष्पमाला समझ बैठे हैं। ये खोखली तालियों की गड़गड़ाहट से भरे, लंबे-लंबे व्याख्यानों से सजे पर्यावरण दिवस आयोजन, सरकारी मशीनरी की उस खामखाह की रुमानियत का मखौल उड़ा रहे हैं जो भूमि को बंजर बनाकर उसमें पर्यावरण संरक्षण के नाम पर लाखों पेड़ों की आहुति देने से पनपे हैं। उन आँखों की अंधता को भी बेनकाब कर रहे हैं जो इस विनाशलीला को देखकर भी अनजान बने रहते हैं। हमें सोचना होगा कि क्या हम वाकई में इन आयोजनों का हिस्सा बनकर प्रकृति प्रेमी का तमगा लगाए बैठे हैं या सिर्फ उस खोखले ढोल की थाप पर नाच रहे हैं जिसे बजाने वाले हाथ खुद अपनी ही ताल में भटक गए हैं। कहीं ऐसा न हो कि हम अपने ही बुने जाल में फंस कर रह जाएँ, और जब तक हमें इसका एहसास हो, तब तक हमारी प्रिय धरती की सुंदरता सिर्फ किस्से-कहानियों में ही बची हो।


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